One needs to be a Sanjay Dutt to fetch lakhs in auction for his work, and that too while serving his jail term. For other prisoners, even a few hundreds is a boon. Indian prisons are still more like Nazi-era concentration camps than being places for correcting the guilty. With over 3 lakh prisoners packed across 1200 plus jails, the government is shamelessly unable to manage these centers and has reduced our prisons to human slaughter houses, where self-respect, dignity and morale are butchered at every single moment.
Prisons in India are not only a liability on society but have lost the very essence of their objective. Let me discuss this issue point by point. Most of the prisons in our country (barring two or maximum three) are a cost for the nation. The total expenditure on all prisons combined, across the nation, was estimated to be around Rs.2,69,726.80 lakhs during the year 2010-11, with every prisoner, on an average, costing the exchequer Rs.19,446.60 (2010-11 data)! Now, here is where the paradox lies. These criminals are stuffed (literally) into our prisons since they have created either an economic loss or social loss to the country; and they are then made to survive on the tax paid by that very aggrieved society. In simple terms, the total cost on all prisoners put together is shared by around 150,000 taxpayers!
What’s worse is that our prisons are no more corrective centers. With time, these are increasingly become training centers for to-be criminals. Since there is no such concept of correction in our prisons, even a one-time criminal comes out as a seasoned criminal. And why not? With the training of inmates for skill enhancements being poor, they are left with no option other than resorting back to the criminal world. For the uninitiated, the functions performed in Indian jails include tailoring, paper and leather work, carpentry, baking, textiles and candle making. And it requires no NSSO-type survey to find out that such skill sets without an enabling environment generate little productive engagements.
Strangely, Gautam Doshi (group MD of ADAG) was assigned the work of making chairs and baking cakes and was paid peanuts in return. With 42.9 per cent prisoners being educated till class 10 and 6.44 per cent being graduates and above, it makes little sense for our authorities not to utilize their competencies. At least the more educated (professionals) can train those who are not that well educated, so that they can lead decent lives after their incarceration is complete. It’s astounding but true that the average monthly output per prisoner in India is no more than Rs.150, which is at the ebb of utilized resources. The compromise with performance is writ clear on the wall with annual pan India turnover being a meager Rs.66 crores.
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Prisons in India are not only a liability on society but have lost the very essence of their objective. Let me discuss this issue point by point. Most of the prisons in our country (barring two or maximum three) are a cost for the nation. The total expenditure on all prisons combined, across the nation, was estimated to be around Rs.2,69,726.80 lakhs during the year 2010-11, with every prisoner, on an average, costing the exchequer Rs.19,446.60 (2010-11 data)! Now, here is where the paradox lies. These criminals are stuffed (literally) into our prisons since they have created either an economic loss or social loss to the country; and they are then made to survive on the tax paid by that very aggrieved society. In simple terms, the total cost on all prisoners put together is shared by around 150,000 taxpayers!
What’s worse is that our prisons are no more corrective centers. With time, these are increasingly become training centers for to-be criminals. Since there is no such concept of correction in our prisons, even a one-time criminal comes out as a seasoned criminal. And why not? With the training of inmates for skill enhancements being poor, they are left with no option other than resorting back to the criminal world. For the uninitiated, the functions performed in Indian jails include tailoring, paper and leather work, carpentry, baking, textiles and candle making. And it requires no NSSO-type survey to find out that such skill sets without an enabling environment generate little productive engagements.
Strangely, Gautam Doshi (group MD of ADAG) was assigned the work of making chairs and baking cakes and was paid peanuts in return. With 42.9 per cent prisoners being educated till class 10 and 6.44 per cent being graduates and above, it makes little sense for our authorities not to utilize their competencies. At least the more educated (professionals) can train those who are not that well educated, so that they can lead decent lives after their incarceration is complete. It’s astounding but true that the average monthly output per prisoner in India is no more than Rs.150, which is at the ebb of utilized resources. The compromise with performance is writ clear on the wall with annual pan India turnover being a meager Rs.66 crores.
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भारत में मेनेजमेंट गुरु के नाम से बजने और सुने जाने वाले एक मेनेजमेंट गुरु ने अपने ब्लॉग “पेशॅनिट एबाउट इंडिया” में 3,अगस्त,2012 को लिखे एक लेख “PrivatisePrivatise & Outsource Our Prisons” में भारतीय जेलों की तुलना नाजी युग के बंदी शिविरों से करते हुए, जेल में बंद कैदियों को राष्ट्र को टेक्स देने वाले लगभग 1,50,000 लोगों पर बौझ बताकर, जेलों को निजी हाथों में सौंपने की वकालत की है। उनका यह लेख कई हिदी अखबारों में अनुवादित होकर “बाजार को सौंप दो कारागार का भार” शीर्षक से भी प्रकाशित हुआ है।
लेख का लब्बोलुआब यह है कि भारतीय जेलों की दशा बहुत खराब है। वहाँ 3,68,998 कैदी भरे पड़े हैं, जबकि रखने की जगह सिर्फ 2,77,304 कैदियों के लिए है। रखरखाव और स्वास्थ्यगत सुविधाओं की कमी के चलते बड़ी संख्या में कैदियों की मौतें मलेरिया, टायफाईड और टीबी की वजह से होती है। 2010 में ही भारतीय जेलों में तकरीबन 1400 कैदियों की मौत हुई है। जबकि, अमेरिका की जेलों में 22,66,832 कैदी होने के बावजूद-जो कि भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या के छै गुनी है- वहाँ कैदी न तो इन बीमारियों से मरते है और न ही बाहर आकर समाज के लिए खतरा बनाते हैं, बल्कि वे अधिक कुशल व्यक्ति बनाकर जेल से निकलते हैं।
उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि भारत में प्रत्येक कैदी की उत्पादकता 150 रुपये से अधिक नहीं है और भारत में जेलों में बनाए या पैदा किये जाने वाले सामान का कारोबार सालाना 68 करोड़ रुपये जैसा मामूली है।जिसका मतलब है, कैदियों की कार्य क्षमता के साथ समझौता किया जा रहा है। अंत में वो अमेरिका के फेडरल प्रिजन सिस्टम से सीख लेने को कहते हैं। वो बताते हैं कि अमेरिका की 79 जेलों 88 फेक्ट्रियों का संचालन होता है, जिनमें कुल 14200 कैदी काम करते हैं और सालाना कारोबार 745 मिलियन अमरीकी डालर(वर्ष 2011)है। अपनी बात को और ज्यादा वजनदार बनाने के लिए वो मोटोरोला, आईबीएम, कॉमपेक, शेवरॉन जैसी कंपनियों का उदाहरण देकर बताते है कि ये कंपनियां नियमित रूप से अमरीकी, ब्रितानी, जर्मनी देशों में बंद कैदियों की सेवाएं लेती रही हैं। इसका निष्कर्ष वो ये निकालते हैं कि भारत जहां सरकारी और निजी कंपनियों की क्षमताओं में भारी अंतर है, अगर जेलों को निजी हाथों में दे दिया जाए तो क्षमताएं(मेरे अनुसार कंपनियों का मुनाफ़ा)कितनी बढ़ सकती हैं!
पूंजीवादी व्यवस्था की दो बड़ी खासियत हैं। पहली तो यह कि श्रम कहीं पर भी हो और कैसा भी हो, उसका शोषण करके मुनाफ़ा कमाने के रास्ते वह निकाल ही लेती है। दूसरी यह कि मुनाफ़ा कमाने का रास्ता निकालने के पहले वह ऐसी बौद्धिक जमात को तैयार करके प्रचार में लगा देती है, जो पूरी बेशर्मी के साथ आंकड़ों की जगलरी तैयार करके जनमत को उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार करने में जुट जाते हैं। हमारे देश में लागू हुए भूमंडलीकरण के पिछले दो दशक में ऐसी जमात में खासी बढ़ोत्तरी हुई है, जो खाते भारत की हैं, पर, बजाते अमेरिका की हैं। अरिंदम चौधरी, भारत में मुँह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए उन लोगों में से हैं, जिन्हें चांदी कहाँ से काटने मिले वही दिखाई देता है। इसीलिये, वे भारत के कारपोरेट सेक्टर के लिए मुनाफे के लिए एक ऐसा रास्ता सुझा रहे हैं, जो स्वयं अमेरिका में पिछले अनेक वर्षों से विवादग्रस्त और तमाम आलोचनाओं का शिकार है। आखिर यही उनकी शिक्षा है, जो उन्होंने अपने पिता के ही संस्थान आईआईपीएम से गृहण की है। वे उसी के पोस्टग्रेजुएट हैं और उसी के निदेशक और थिंक टेंक डायरेक्टर हैं। आईये उनके तर्कों को एक के बाद एक परखते हैं;
भारतीय जेल निसंदेह अनेक कमियों से दो चार हैं। विशेषकर, आवास स्थल की कमी, स्वास्थ्यगत सुविधाओं के कमी, प्रशासनिक प्रताड़ना आदि और इनमें निःसंदेह आमूल सुधार की आवश्यकता है। इनमें सुधार नहीं होने पाने का एकमात्र कारण यही है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकारों का ध्यान और रुझान दोनों उद्योगों के मालिकों के मुनाफे की रक्षा करने में ही रहता है और उन्हें देश के सबसे निचले हिस्से पर पैसा खर्च करना फिजूल खर्ची लगता है, उनमें कैदी भी आते हैं। इसके बावजूद, यदि कोई भारत की जेलों की तुलना नाजी युग के शिविरों से करता है तो उस पर हंसने के अलावा और क्या किया जा सकता है?
दुनिया के इतिहास में, नाजी बंदी शिविर, अमानुषिक व्यवहार, भुखमरी, जबरिया श्रम, और हत्याओं के अलावा नस्ली हत्याओं और राजनीतिक हत्याओं के लिए भी दर्ज हैं। यदि लेखक को तुलना करनी ही तो, उसे अमेरिका ने किस तरह वियतनाम, ग्वांटानामो, क्यूबा, अफगानिस्तान और ईराक के युद्धबंदियों के साथ व्यवहार किया है, उससे तुलना करनी चाहिये थी, जिसके बारे में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी 25,सितम्बर,2003 की रिपोर्ट में कहा था कि अमेरिका अपने युद्धबंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार का दोषी है। अभी हाल में ईराक के युद्धबंदियों के साथ अमेरिका की सेना ने क्या व्यवहार किया और अफगानिस्तान में उसकी सेना के क्या बर्ताव हैं, उनसे तो दुनिया के अखबार रंगे पड़े है, पर, वो सब देखने और समझने के लिए, जिन आँखों की जरुरत पड़ती है, उन पर तो आईआईपीएम और कारपोरेट्स के मुनाफे का चश्मा चढ़ा हुआ है, उन्हें कहाँ दिखाई पड़ेगा?
अरिंदम चौधरी बताते हैं कि 2010 में ही भारतीय जेलों में तकरीबन 1400 कैदियों की मौत मलेरिया, टायफाईड और टीबी की वजह से हुई है। जबकि, अमेरिका की जेलों में 22,66,832 कैदी होने के बावजूद-जो कि भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या के छै गुनी है- वहाँ कैदी न तो इन बीमारियों से मरते है और न ही बाहर आकर समाज के लिए खतरा बनते हैं, बल्कि वे अधिक कुशल व्यक्ति बनाकर जेल से निकलते हैं। अब इस बात पर बाद में चर्चा करेंगे कि “आजादी और अवसरों के देश” अमेरिका में ऐसी क्या खासियत है कि वहाँ कुल आबादी के लगभग एक प्रतिशत और व्यस्क आबादी के लगभग पांच प्रतिशत लोग जेल में रहना पसंद करते हैं? बहरहाल, पहले अरिंदम चौधरी के इस दावे की पड़ताल की जाये कि क्या वाकई अमेरिका की जेलें भारत की जेलों से ज्यादा अच्छी हैं और वहाँ कैदियों की मौतें भारत की तुलना में कम होती हैं?
अमेरिका की ही ऑनलाइन मेगजीन टॉकलेफ्ट में 7दिसंबर,2006 को Inmates & Prison शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ। लेखक जेरेलिन के अनुसार अमेरिका में ग्वांटानामों और मध्यपूर्व के बंदियों के मानवाधिकार उल्लंघन पर बहुत हाय तौबा मचती है, जबकि दर्दनाक तरीके से अमेरिका की ही जेलों में बंदी नागरिकों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता, जहां, 7000 अमरीकी प्रतिवर्ष मर जाते हैं। इनमें से कुछ मौते प्राकृतिक होती है तो ज्यादातर दिमागी हालत खराब होने से, जिसको न तो कभी डायग्नोज किया जाता है और न ही जिसका कोई ईलाज किया जाता है। कहने की जरुरत नहीं है कि अमेरिका में कैदियों के संवैधानिक अधिकारों की कोई पूछ परख नहीं है और वहाँ हालात भारत से बेहतर हैं, कहना, सफ़ेद झूठ के अलावा कुछ नहीं है। इसकी पुष्टि अमेरिका के ब्यूरो ऑफ जस्टिस के आंकड़े भी करते हैं। अमेरिकन ब्यूरो ऑफ जस्टिस की दिसंबर,2011 में जारी रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में न्यायायिक हिरासत में 2000से2009 के मध्य दस वर्षों में 27,969 बंदियों की मौत हुई हैं। याने औसतन प्रतिवर्ष 2797 बंदियों की मृत्यु। भारत में तुलनात्मक स्थिति क्या है? एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राईट्स के अनुसार 2001से 2010 के मध्य भारत में न्यायायिक हिरासत में 12727 बंदियों की मौत हुई। याने भारत में औसत आया लगभा 1273 प्रति वर्ष। मेनेजमेंट गुरु के मुनाफे के गणित में यदि 1273 की संख्या 2797 से बड़ी है, तो कोई क्या कर सकता है! जेलों में बंदियों की मृत्यु के कारणों में जाएँ तो स्वास्थ्य सेवाओं में कमी, शोचनीय मानवीय दशाएं, प्रताड़ना जैसे कारणों की समानता होने के बावजूद अमरीकी जेलों में कैदियों की आत्महत्या मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। ब्यूरो ऑफ जस्टिस की ही 2010,जुलाई की रिपोर्ट बताती है कि न्यायायिक हिरासत में होने वाली कुल मौतों का 29% आत्महत्या से हुई मृत्यु का है।
अमेरिका की जेलों में हेल्थ केयर के बारे में न्यूयार्क टाईम्स ने दिसंबर,2005 में लेखों की श्रंखला प्रकाशित की थी। ये लेख अमेरिका की जेलों के बारे में काफी शोध के बाद प्रकाशित हुए थे। लेखों में अमेरिका की जेलों में स्वास्थ्य देखभाल की दयनीय दशा, महामारी जैसी बीमारियों के फ़ैलने के कारणों के बारे में बात करते हुए शोधकर्ता और लेखक पॉल वॉन जिएलबौएर ने लिखा था कि अमरीकी जेलों में 10 दिन का कारावास मृत्यु दंड के बराबर हो सकता है। इस पूरे विवरण में अमेरिका की वे जेलें शामिल हैं, जो प्राईवेट है, जिन्हें वहाँ प्रॉफिट जेल के नाम से ज्यादा जाना जाता है।
दरअसल, प्रॉफिट जेल या जेलों के निजीकरण की जड़ें अमेरिका में गुलामी की प्रथा से जुडी हुई हैं। बंदियों को जबरिया श्रम करने के लिए किराये पर देने की शुरुवात दक्षिण अमेरिका में 1865 में हुए अमेरिकन सिविल वॉर के बाद हुई, जिसके बाद अमेरिका में गुलामों को आजाद कर दिया गया था। पर, थोड़ा भी ध्यान से अमेरिका को समझने वाला जानता है कि यह अभी भी जारी है। यही कारण है कि “आजादी और अवसरों का देश” दुनिया में किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा नागरिकों को बंदी बनाकर रखता है|
प्रॉफिट जेल याने कॉर्पोरेट सेक्टर को सौंपे गए जेलों का मकड़जाल किस तरह देश के नागरिकों को जेल के अंदर भेजने के लिए अपना जाल बुनता है, इसे समझने के लिए अमेरिका की लुसियाना स्टेट का उदाहरण लेना होगा, जहां के 50 प्रतिशत से अधिक रहने वाले लुसियाना की जेलों में बंद हैं। कुछ समय पूर्व न्यू ओरलेंस टाईम्स-पिकायुने ने एक रिपोर्ट में खुलासा किया था कि लुसियाना में जिन लोगों पर क़ानून को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे प्रॉफिट जेलों के साथ गहरे तक गैरकानूनी वित्तीय संबंधो में जुड़े हुए हैं।
लुसियाना विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर बर्क फ़ॉस्टर का कहना है कि राज्य में ऐसे लोग हैं, जिनके हित वर्त्तमान जेल प्रणाली (प्रॉफिट जेल) को बनाए रखने में है, इसमें केवल पोलिस के बड़े अधिकारी ही नहीं, न्यायाधीश, सरकारी वकील और अन्य बहुत सारे लोग शामिल हैं। वे आगे कहते हैं कि ये लोग किसी भी हालत में प्राईवेट कारागारों को कम होते या बंदियों की संख्या को कम होते नहीं देखना चाहते, हालाकि अपराध की दर कम है, क्योंकि ये सारे लोग सजा देने की एक ऐसी प्रणाली से जुड़े हैं, जिसमें इनको आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह का फ़ायदा है।
जहां तक कैदियों को ऐसी शिक्षा देने का सवाल है, जिससे कैद से छूटने के बाद उनका पुनर्वास हो सकता है, इसमें भी लेख में व्यक्त बातों में कोई सचाई नहीं है। प्रॉफिट जेलों का पूरा पूरा ध्यान कम से कम खर्च में काम चलाने पर ही नहीं रहता है, बल्कि उनका पूरा ध्यान इस पर भी रहता है कि एक बार जेल का दर्शन किया हुआ आदमी, कितनी जल्दी दुबारा जेल में बंदी के रूप में वापस आता है। इसके लिए वे पूरे सिस्टम को खरीद लेते हैं ताकि उन्हें न्यूनतम आवास, न्यूनतम वस्त्र और न्यूनतम खाने के खर्च पर अधिकतम श्रम उपलब्ध हो। उनकी रुची किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण कैदियों को देने में नहीं रहती है। न्यूयार्क टाईम्स के स्तंभकार चार्ल्स एम ब्लो इसे इस तरह कहते हैं कि कैद से छूटने के बाद, वे(कैदी) समाज में आपराधिक रिकार्ड और किसी प्रशिक्षण के बिना पहुँचते हैं, नतीजा कोई जॉब पाना, उनके लिए असंभव ही रहता है, इससे इस बात की गारंटी हो जाती है कि वे दोबारा अपराधी के रूप में जेल में वापस आयेंगे।
जहां तक निजी जेलों से लागत व्यय में बचत होने का सवाल है, स्वयं अमेरिका की ब्यूरो ऑफ जस्टिस स्टेटिस्टिक्स विभाग का कहना है कि निजी जेलों ने जिस बचत का वायदा किया था, वह कभी नहीं हो पाई। उलटे अनेक अध्यनों ने यह पुष्ट किया है कि, चूंकि, निजी जेलों की रुची ज्यादा से ज्यादा लोगों को बंदी रखने में रहती है, वे उस अनुसार क़ानून बनाने के लिए सरकार और सांसदों में लाबिंग करने के लिए अंधाधुंध पैसा खर्च करते हैं।
अमेरिका में आज दर्जनों ऐसे संगठन हैं जो प्रॉफिट जेलों को पूरी तरह समाप्त करने या उनके विस्तार पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। यहाँ तक कि अमेरिका के प्रेसबीटेरियन और यूनाईटेड मेथोडिस्ट चर्च और साउथ आर्गनाईजेशन के केथोलिक बिशप ने भी निजी जेलों को बंद करने की मांग की है। पर, मेनेजमेंट गुरु को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल, भारत में कारागारों के निजीकरण की वकालत करके मेनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए, आधे भारत को जेल में डालकर, सस्ते श्रम का नया स्रोत जुटाने का प्रबंध करना चाहते हैं।